• Shri Bhagavad Gita Chapter 17 | श्री भगवद गीता अध्याय 17 | श्लोक 12
    2025/02/06

    यह श्लोक श्री भगवद गीता के 17.12 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण राजसी यज्ञ के बारे में बताते हुए कहते हैं:

    "जो यज्ञ केवल फल की प्राप्ति के लिए, अहंकार और दंभ के साथ किया जाता है, वही राजसी यज्ञ कहलाता है। ऐसा यज्ञ केवल नाम और दिखावे के लिए किया जाता है, न कि आत्मिक उन्नति या ईश्वर की भक्ति के लिए।"

    भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह समझा रहे हैं कि राजसी यज्ञ वह होते हैं जो व्यक्तित्व के अहंकार और दिखावे के लिए किए जाते हैं, जहाँ फल की प्राप्ति प्रमुख उद्देश्य होती है। इस प्रकार के यज्ञ में ईमानदारी और निस्वार्थ भावनाओं का अभाव होता है।

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  • Shri Bhagavad Gita Chapter 17 | श्री भगवद गीता अध्याय 17 | श्लोक 11
    2025/02/06

    यह श्लोक श्री भगवद गीता के 17.11 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण सात्त्विक यज्ञ के बारे में बताते हुए कहते हैं:

    "जो यज्ञ विधिपूर्वक, फल की आकांक्षा के बिना और केवल उसके समर्पण भाव से किया जाता है, वही सात्त्विक यज्ञ कहलाता है। ऐसा व्यक्ति पूरी श्रद्धा और आत्मसमर्पण के साथ यज्ञ करता है, बिना किसी फल की इच्छा के।"

    भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह समझा रहे हैं कि सात्त्विक यज्ञ वह होता है जिसे निस्वार्थ भाव से किया जाता है, जिसमें फल की इच्छा नहीं होती, और वह केवल ईश्वर के प्रति समर्पण और श्रद्धा से किया जाता है। यह प्रकार का यज्ञ शुद्ध और पवित्र होता है, जो आत्मिक और मानसिक विकास में सहायक होता है।

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  • Shri Bhagavad Gita Chapter 17 | श्री भगवद गीता अध्याय 17 | श्लोक 10
    2025/02/05

    यह श्लोक श्री भगवद गीता के 17.10 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण तामसी आहार के लक्षणों का वर्णन करते हुए कहते हैं:

    "जो आहार स्वादहीन, सड़ा हुआ, पूस (बासी) और बासी होने के कारण गंधयुक्त होता है, और जो उच्छिष्ट (अवशेष) और अशुद्ध होता है, वही तामसी आहार कहलाता है। ऐसे आहार तामसी प्रवृत्तियों के अनुरूप होते हैं।"

    भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह स्पष्ट कर रहे हैं कि तामसी आहार वह होते हैं जो शारीरिक, मानसिक और आत्मिक दृष्टिकोण से हानिकारक होते हैं। ये आहार न केवल स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होते हैं, बल्कि व्यक्ति के भीतर नकारात्मक ऊर्जा और मानसिक अशांति भी उत्पन्न करते हैं।

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  • Shri Bhagavad Gita Chapter 17 | श्री भगवद गीता अध्याय 17 | श्लोक 9
    2025/02/05

    यह श्लोक श्री भगवद गीता के 17.9 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण राजसी आहार के लक्षणों का वर्णन करते हुए कहते हैं:

    "राजसी आहार वे होते हैं जो अत्यधिक तिक्त (कड़वे), अम्ल (खट्टे), लवण (नमकीन), उष्ण (गर्म), तीव्र (तीखा), रूक्ष (कठोर) और ज्वर उत्पन्न करने वाले होते हैं। ऐसे आहार दुख, शोक और इच्छाओं को उत्पन्न करने वाले होते हैं।"

    भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह बता रहे हैं कि राजसी आहार व्यक्ति की मानसिक स्थिति और स्वभाव पर विपरीत प्रभाव डालते हैं। यह आहार शरीर और मन को उत्तेजित कर सकते हैं और व्यक्ति को दुःख, मानसिक अशांति और अनावश्यक इच्छाओं की ओर प्रवृत्त कर सकते हैं।

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  • Shri Bhagavad Gita Chapter 17 | श्री भगवद गीता अध्याय 17 | श्लोक 8
    2025/02/04

    यह श्लोक श्री भगवद गीता के 17.8 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण सात्त्विक आहार के लक्षणों का वर्णन करते हुए कहते हैं:

    "सात्त्विक आहार वे होते हैं जो आयु, सत्त्व, बल, आरोग्य, सुख और प्रेम को बढ़ाते हैं। ऐसे आहार रसीले, स्निग्ध (मुलायम), स्थिर (पाचन में हल्के) और हृदय को प्रसन्न करने वाले होते हैं। ये आहार सात्त्विक प्रवृत्तियों के अनुरूप होते हैं।"

    भगवान श्री कृष्ण इस श्लोक में सात्त्विक आहार के गुणों का विस्तार से वर्णन कर रहे हैं, जो न केवल शारीरिक बल्कि मानसिक और आत्मिक स्वास्थ्य के लिए भी लाभकारी होते हैं। ये आहार व्यक्ति को शांति, संतुलन और सुख प्रदान करते हैं।

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  • Shri Bhagavad Gita Chapter 17 | श्री भगवद गीता अध्याय 17 | श्लोक 7
    2025/02/04

    यह श्लोक श्री भगवद गीता के 17.7 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण कहते हैं:

    "सभी प्राणियों का आहार तीन प्रकार का होता है, जो उनके स्वभाव और गुणों पर निर्भर करता है। इसी प्रकार यज्ञ, तपस्या और दान भी तीन प्रकार के होते हैं। अब तुम इनके भेद को सुनो।"

    भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह बता रहे हैं कि जैसे आहार, यज्ञ, तपस्या और दान के विभिन्न प्रकार होते हैं, वैसे ही ये व्यक्ति के गुणों के अनुसार भिन्न होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति की आदतें, आस्थाएँ और आहार उसके मानसिक और आत्मिक गुणों से प्रभावित होती हैं। इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण इन विभिन्न रूपों का विवरण देने वाले हैं।

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  • Shri Bhagavad Gita Chapter 17 | श्री भगवद गीता अध्याय 17 | श्लोक 6
    2025/02/03

    यह श्लोक श्री भगवद गीता के 17.6 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण कहते हैं:

    "जो लोग अपने शरीर में स्थित भूतों (जीवों) को, बिना विवेक और बिना चेतना के, प्रकोपित करते हैं, और जो मुझे, जो शरीर के अंदर स्थित हूँ, नहीं पहचानते, वे असुर प्रवृत्तियों वाले होते हैं।"

    भगवान श्री कृष्ण यहाँ उन लोगों का वर्णन कर रहे हैं जो अपने शरीर और मन को अविवेकपूर्ण रूप से नियंत्रित करते हैं और अपनी इच्छाओं को पूरी करने के लिए दूसरों की उपेक्षा करते हैं। वे भगवान के वास्तविक रूप को नहीं पहचानते और असुर प्रवृत्तियों में लिप्त रहते हैं। यह श्लोक यह बताता है कि असुर प्रवृत्तियाँ व्यक्ति के अंदर की चेतना और विवेक का हरण करती हैं।

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  • Shri Bhagavad Gita Chapter 17 | श्री भगवद गीता अध्याय 17 | श्लोक 5
    2025/02/03

    यह श्लोक श्री भगवद गीता के 17.5 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण कहते हैं:

    "वे लोग जो शास्त्रों के अनुसार नहीं, बल्कि घोर और अनुचित तपस्या करते हैं, जो दंभ और अहंकार से जुड़े होते हैं, और जो काम, राग और बल के प्रभाव में तपस्या करते हैं, वे ऐसे लोग होते हैं।"

    भगवान श्री कृष्ण यहाँ उन व्यक्तियों के बारे में बता रहे हैं जो बिना सही मार्गदर्शन और शास्त्रों के नियमों के अनुसार तपस्या नहीं करते, बल्कि अहंकार, दंभ और वासनाओं से प्रेरित होकर कठिन तपस्या करते हैं। इस प्रकार की तपस्या सही नहीं मानी जाती और यह उनके लिए हानिकारक हो सकती है।

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