• Shri Bhagavad Gita Chapter 17 | श्री भगवद गीता अध्याय 17 | श्लोक 11

  • 2025/02/06
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Shri Bhagavad Gita Chapter 17 | श्री भगवद गीता अध्याय 17 | श्लोक 11

  • サマリー

  • यह श्लोक श्री भगवद गीता के 17.11 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण सात्त्विक यज्ञ के बारे में बताते हुए कहते हैं:

    "जो यज्ञ विधिपूर्वक, फल की आकांक्षा के बिना और केवल उसके समर्पण भाव से किया जाता है, वही सात्त्विक यज्ञ कहलाता है। ऐसा व्यक्ति पूरी श्रद्धा और आत्मसमर्पण के साथ यज्ञ करता है, बिना किसी फल की इच्छा के।"

    भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह समझा रहे हैं कि सात्त्विक यज्ञ वह होता है जिसे निस्वार्थ भाव से किया जाता है, जिसमें फल की इच्छा नहीं होती, और वह केवल ईश्वर के प्रति समर्पण और श्रद्धा से किया जाता है। यह प्रकार का यज्ञ शुद्ध और पवित्र होता है, जो आत्मिक और मानसिक विकास में सहायक होता है।

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あらすじ・解説

यह श्लोक श्री भगवद गीता के 17.11 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण सात्त्विक यज्ञ के बारे में बताते हुए कहते हैं:

"जो यज्ञ विधिपूर्वक, फल की आकांक्षा के बिना और केवल उसके समर्पण भाव से किया जाता है, वही सात्त्विक यज्ञ कहलाता है। ऐसा व्यक्ति पूरी श्रद्धा और आत्मसमर्पण के साथ यज्ञ करता है, बिना किसी फल की इच्छा के।"

भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह समझा रहे हैं कि सात्त्विक यज्ञ वह होता है जिसे निस्वार्थ भाव से किया जाता है, जिसमें फल की इच्छा नहीं होती, और वह केवल ईश्वर के प्रति समर्पण और श्रद्धा से किया जाता है। यह प्रकार का यज्ञ शुद्ध और पवित्र होता है, जो आत्मिक और मानसिक विकास में सहायक होता है।

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