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Fredrich Nietzsche का दर्शन हिन्दी में

Fredrich Nietzsche का दर्शन हिन्दी में

著者: Pranshu Prakash
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このコンテンツについて

Fredrich Nietzsche के दर्शन का हिन्दी में अनुवाद कर रहा हूँ। Line by line translate करने के बजाय Nietzsche दर्शन आम बोल चाल की भाषा में प्रस्तुत करने की कोशिश हैं। शुरुआत उनकी किताब 'Twilight of the Idols' से की है। भविष्य में और भी किताबें अनुवाद करूंगा। Nietzsche का दर्शन कालजयी है। किसी एक समय या देश में उनको बांधना असंभव है। आस्तिक और नास्तिक दोनों Nietzsche दर्शन का लाभ उठा सकते हैं। भारत में Osho के विचारों में Nietzsche की झलक मिलती हैं। Jiddu Krishnamurti के भी विचार उनसे मिलते जुलते हैं।Pranshu Prakash 哲学 社会科学
エピソード
  • Nietzsche का नास्तिक दर्शन || The Anti-Christ (5) || साधुओं की नैतिकता बकवास
    2023/05/25
    धर्म और नैतिकता का यथार्थ से कोई नाता नहीं. इनकी शब्दावली पर ज़रा गौर करिए- परमात्मा, आत्मा, पाप, पुण्य, कर्म, संसार -माया, लोक- परलोक. एक पूरी काल्पनिक दुनिया बन कर तैयार हो गई. अगर कोई इस संस्कृति में बचपन से नहीं पला बढ़ा तो हवा भी न लगेगी की किन चीज़ों की बात हो रही है. भोजन, प्रजनन, प्रतिस्पर्धा जैसी चीज़ें बच्चों को सिखानी नहीं पड़ती. वैसे ही common sense भी कोई सिखाने वाली चीज नहीं, लेकिन इस विशेष धार्मिक शब्दावली को ज़बरदस्ती बच्चों के दिमाग में ठूसना पड़ता है. अगर एक सौ साल धार्मिक शिक्षा न दी जाए तो लोग ये पूरी धार्मिक भाषा भूल जाएंगे, पर common sense फिर भी बचा रहेगा – तर्क और बुद्धि हर मानव को जन्म से विरासत में मिलती है, सिखानी नहीं पड़ती. लोक अक्सर दिन में सपने देखने वालों, ख्याली पुलाव बनाने वालों पर हँसते हैं, लेकिन क्या आपने कभी सोचा है की ऐसे दिवास्वप्न देखने वाले मुंगेरी लाल भी मज़हबी दुनिया में जीने वालों से बेहतर हैं? सपने reality को और मनोरम बनाने,  जीवन को और सुंदर बनाने की आस से निकलते हैं. लेकिन धर्म reality यथार्थ को नकारना और झुठलाना चाहते हैं. आपसे कहते हैं की ये दुनिया हमारे लायक़ है ही नहीं, सच्ची दुनिया धार्मिक दुनिया है. धर्म के बाबा संसारी दृष्टि को नीची नज़र से देखते हैं. धार्मिक दृष्टि में कुछ स्वाभाविक नहीं. कुछ प्रकार की प्राकृतिक प्रवृत्तियों को साधु लोग मानव मन से ठोक- पीट कर बाहर निकाल देना चाहते हैं.  ये सिखाते हैं की जानवरों वाली प्रवृत्तियां त्याग दीजिये. हिंसा करने की इच्छा, क्रूरता, ईर्ष्या, ठरक, दूसरों को हराने की लालसा, पड़ोसी का दमन करने की इच्छा साधु जन छुड़वा देना चाहते हैं. ये चाहते हैं की हर मानव प्रेम स्वरूप बन जाए. करुणा और परोपकार को, और जीव मात्र की सेवा को अपने जीवन का आदर्श बना लें. पर क्यों भाई? किसी बाघ को करुणा समझाने से क्या लाभ होगा? और बाघ समझ जाए तो उस पर कैसा प्रभाव पड़ेगा? आदमी ठरकी, ईर्ष्यालु और लालची नहीं हो सकता? बेचारा मानव. आखिर ठहरा तो एक जानवर ही. साधु बाबाओं की इन धार्मिक शिक्षाओं के बोझ तले दबा जा रहा है. खुद से भाग रहा है. Youtube पर जानवरों के वीडियो देख कर अपना मन बहला रहा है. खुद को समझा रहा है की आदमी होने के नाते वह जानवरों की तरह स्वाभाविक नहीं हो सकता. अगर ठरक आए तो छुपा लीजिये, ईर्ष्या और ...
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  • Nietzsche का नास्तिक दर्शन || The Anti-Christ (5) || साधुओं का अध्यात्म बकवास
    2023/05/23
    धर्म बाबाओं को और अधिक विनम्र होने की ज़रूरत है. हम मानवों की स्थिति इस सृष्टि  इस universe में क्या है? बाबा जन की मान लें तो हम स्वयं परमात्मा स्वरुप-परम ब्रह्म हैं, बस अहंकार दूर करने की देर है. जिसने अहंकार त्याग दिया परमात्मा से एक हो गया. लेकिन ये सब कहने का आधार क्या है? मानव चेतना/ consciousness- जिसका जाप बाबा लोग दिन रात करते हैं, दरअसल क्या चीज है? आइए गहराई से देखते हैं- सबसे निचले तबके के जीव- कीड़े-मकोड़े और microbes  मशीन की तरह चलते हैं. दार्शनिक Descartes ने जानवरों को एक प्रकार की biological  मशीन कहा है, क्योंकि वे निर्धारित गति से अपने आप सृष्टि के नियमों के अनुरूप पैदा हो रहे हैं, भोजन कर रहे हैं, खुद को बचा रहे हैं और प्रजनन कर अपना वंश बढ़ा रहे हैं. लेकिन क्या मानव भी नियम से चलने वाले मशीनों की तरह हैं? Biologically/जैविक दृष्टि से तो डॉक्टर यही बताते हैं- मानव शरीर बिना इच्छा शक्ति का प्रयोग किए अपने आप चलता है। लेकिन क्या psychologically भी, मानव बुद्धि को नियम से चलने वाली एक मशीन माना जा सकता है क्या? कोई धर्म बाबा तो ये मानने को तैयार नहीं होगा. हालांकि, इस बात से वे भी इंकार नहीं कर सकेंगे की मनोविज्ञान भी causation से बंधा हुआ है- अकारण कुछ नहीं होता। विचार अपने आप शून्य से उत्पन्न नहीं होते, इनके भी कारण होते हैं. लेकिन धर्म शास्त्री ये सब जानते हुए भी मान नहीं सकेंगे की हमारे विचारों पर हमारा नियंत्रण नहीं. धर्म का काम ज़िम्मेदारी स्थापित करना है, ताकि कुछ लोगों को पापी और कुछ को धार्मिक घोषित किया जा सके. ये आपको बताएंगे की आप अपने विचारों के पैदा होने के लिए खुद ज़िम्मेदार हैं. हम अपनी मर्ज़ी से अपनी इच्छाएं पैदा करते हैं. और चाहें तो अपनी मर्ज़ी से उन्हें बदल भी सकते हैं. तभी तो बाबा जी इच्छाओं को काबू करना और बदलना सिखलाते हैं.  गलत विचारों की सही से अदला बदली करना सिखाते हैं. भक्तों से कहते हैं की तुमने ही मन पर काबू नहीं किया, नहीं तो तुम भी मेरी तरह साधु होते, धार्मिक कहलाते। और हम अधर्मी क्या मानते हैं? हमारी दृष्टि आधुनिक मनोविज्ञान से प्रेरित है। जिसे लोग will power, इच्छा शक्ति कहते हैं, वह भी दूसरे मनोभावों की तरह ही एक मनोभाव है. लेकिन ये मान लेने का कोई कारण नहीं की अपना will power हम खुद अंदर कहीं पैदा करते हैं, और मनचाहे उसे बदल भी सकते हैं. हम ये मानते हैं की ...
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  • Nietzsche का नास्तिक दर्शन || The Anti-Christ (4) || सत्संग और प्रवचन बेकार
    2023/05/21
    एक धार्मिक प्रवचन और philosophical व्याख्यान में क्या अंतर है? धर्म गुरु कौन सा ऐसा काम करते हैं जो एक दार्शनिक- philosopher के लिए वर्जित है? इसको ठीक से समझ लीजिये. एक दार्शनिक हमेशा आपकी तर्क और बुद्धि से संवाद करता है, लेकिन धर्म गुरु ज़रूरत पड़ने पर आपसे अपने common sense को तिलांजलि दे देने के लिए कहते हैं. तर्क का सहारा धर्मगुरु नहीं लेते ऐसी बात नहीं, लेकिन अंतिम अवस्था में विशेष मुद्रा और वस्त्र पहने बाबाजी आप को डांट देंगे, कहेंगे कुछ बातें समझी नहीं जा सकती, बस मान ली जाती हैं. और मनवाने का विशेष अधिकार उनको है जो साधु बने हुए हैं. लेकिन किसी की बात कोई क्यों सुने? और सुनना चाहे भी, तो माने कैसे? क्या उसूल और नैतिकता कपड़ों की तरह पहने और उतारे जा सकते हैं? क्या सृष्टि के मर्म में कोई नैतिकता, कोई सदाचार का छुपा है, जिसे सभी मानवों को स्वीकार कर लेना ज़रूरी है? धर्म के पंडे ऐसा ही मनवाना चाहते हैं– एक अच्छा, सदाचारी इंसान कैसा हो? क्या इसका formula अंतरिक्ष या धर्म ग्रंथों में कहीं छुपा हुआ है, और ये साधु बाबा इसके expert हैं? हम ऐसा नहीं मानते. उसूल का संबंध एक इंसान के मर्म से होता है, उसकी मनोवैज्ञानिक संरचना से होता है. जो सही लगता है, लगता है, हम नहीं मानते की ये शिक्षा और प्रवचन से बदल देने योग्य कोई चीज है. उसूल वही सच्चे होते हैं जो निजी ज़रूरत, अंतरात्मा की  बाध्यता से निकलते हों. केवल सम्मान, श्रद्धा या भक्ति के कारण बनाए उसूल जीवन के लिए हानिकारक हैं. सही गलत के मापदंड हमेशा निजी होते हैं. कर्तव्य या फर्ज़ समझकर उसूल थोपने पर जीवन का पौधा मुरझा जाता है. ऐसा कोई कर्तव्य नहीं जो सभी के लिए हमेशा सही हो. ये बात धर्म गुरु कभी स्वीकार नहीं कर सकते. जीवन की प्रगति और उन्नति के लिए क्या ज़रूरी है? की हर मानव अपने उसूल खुद बनाए, अपने सही गलत के पैमाने खुद तय करे. किसी जन समूह, किसी राष्ट्र की जीवंतता, ऊर्जा और रचनात्मकता/creativity जड़ से खत्म करने का सबसे पुख्ता तरीका जानते हैं? – सबको एक जैसा बन जाने के लिए बाध्य या प्रेरित करना. अपनी सृजनशक्ति और उर्वरता, तथा जीवन का हर आनंद अगर समाप्त कर देना चाहते हैं, तो साधु बाबा का मार्ग बिलकुल सटीक है – किसी दिव्य या आसमानी नैतिकता को अपना लीजिये और उसका अक्षरशः पालन करिए, चाहे आपकी आत्मा रोज़ विद्रोह करती हो, चाहे आपका ...
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